Vivah Sanskar: विवाह तय करते समय किन बातों का रखना चाहिए ध्यान
जीवन में होनेवाले प्रमुख सोलह संस्कार ईश्वर के निकट जाने के लिए सनातन धर्म ने बताए हैं. उनमे से सबसे महत्वपूर्ण है ‘विवाह संस्कार’ (vivah sanskar). विवाह संस्कार को जन्म जन्मांतर का साथ माना जाता है. इसलिए विवाह करने के पहले दूल्हा और दुल्हन की कुंडली मिलाकर उनके योग और गुण को मिलाने की प्रथा है.
पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से विश्व की निर्मिति हुई. वैदिक परिभाषा में पुरुष को अग्नि और प्रकृति को सोम कहा गया है. अकेला पुरुष अथवा अकेली स्त्री ‘अर्धेंद्र’ अर्थात अपूर्ण होते हैं. पुरुषरूपी अग्नि एवं स्त्रीरूपी सोम की एकता से जीवन को पूर्णत्व आता है. विवाहबद्ध हुए पुरुष एवं स्त्री, ‘धर्मपालन’ करने के लिए एक दूसरे के पूरक एवं सहायक होते हैं. धर्मपालन करने से मनुष्य की ऐहिक एवं आध्यात्मिक उन्नति साध्य होती है. विवाह संस्कार, गृहस्थाश्रम का आरंभबिंदु है. गृहस्थाश्रम में रहकर दंपति के यज्ञ, पूजा आदि करने से ‘देवऋण’, संतान उत्पन्न करने से ‘पितृऋण’ एवं अतिथियों की सेवा करने से ‘समाजऋण’ चुकता होता है. विवाह संस्कार (Vivah Sanskar) के कारण कुटुंबव्यवस्था टिकी रहने से पर्याय स्वरूप समाज व्यवस्था एवं राष्ट्रव्यवस्था उत्तम रहती है.
1. माह विशेष में विवाह निषेध
सनातन धर्म में 16 संस्कारों को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. पाणिग्रहण संस्कार यानी विवाह संस्कार को भी इन 16 संस्कारों में से एक माना जाता है. वैदिक संस्कृति में इन 16 संस्कारों के बगैर इंसान का जीवन सफल नहीं माना जाता. विवाह शब्द में ‘वि’ का मतलब विशेष से है और ‘वाह’ का अर्थ वहन करना है. यानी उत्तरदायित्व को विशेष रूप से वहन करना ही विवाह होता है. हिंदू शास्त्रों में इसे पति पत्नी का जन्म जन्मांतर का संबन्ध माना गया है
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, जिस माह में:
- माता-पिता का विवाह हुआ हो या
- स्वयं जातक का जन्म हुआ हो,
उस माह में विवाह करना वर्जित है।
तर्क:
ऐसे माह को व्यक्ति के लिए विशेष महत्व का माना गया है और इसमें विवाह संस्कार करना पारिवारिक और ज्योतिषीय दृष्टि से अशुभ माना गया है।
2. शुभ नक्षत्र का चयन
कुछ नक्षत्र विवाह के लिए अनुकूल नहीं माने जाते:
- पुष्य नक्षत्र
- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र
तर्क:
इन नक्षत्रों में विवाह करना वैवाहिक जीवन में संघर्ष और अनिष्टकारी परिणाम ला सकता है। इन नक्षत्रों का प्रभाव जोड़ों के आपसी संबंधों और गृहस्थी पर नकारात्मक हो सकता है।
3. प्रथम संतान का विवाह (ज्येष्ठ माह में निषेध)
प्रथम संतान के विवाह के लिए ज्येष्ठ माह को वर्जित माना गया है।
तर्क:
ज्येष्ठ माह और ज्येष्ठ संतान दोनों एक साथ अशुभ संयोग बनाते हैं, जिससे वैवाहिक जीवन में बाधाएं आ सकती हैं। इसलिए यह परंपरा और ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार टालना चाहिए।
4. ग्रहण के समय विवाह वर्जित
- सूर्य ग्रहण
- चंद्र ग्रहण
ग्रहण के तीन दिन पहले और तीन दिन बाद विवाह करना मना है।
तर्क:
ग्रहण काल को अशुभ समय माना जाता है। इस दौरान किए गए धार्मिक कार्य सफल नहीं होते और नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव बढ़ता है। - अपनी समस्याओं के समाधान के लिए "आचार्य जी" से अपॉइंटमेंट लेने हेतु कृपया सम्पर्क करें:care.jyotishgher@gmail.com
5. योग और गोचर की बाधाएं
विवाह को लेकर हिंदू धर्म में कई मान्यताएं और नियम हैं. सनातन धर्म में व्यक्ति के जन्म से लेकर उसके मरने तक 16 संस्कारों का जिक्र किया गया है. विवाह इन संस्कारों में ही एक विशेष संस्कार है. अक्सर कुछ लोग शादी दिन में करते हैं, जबकि कई जगह इसे रात्रि में संपन्न किया जाता है. लेकिन असल में इसका विधान क्या है? जानिए शास्त्रानुसार इसका का अर्थ है.
- गुरु तारा अस्त
- शुक्र तारा अस्त
- विवाह के लिए स्थिर लग्न ढूंढा जाता है, ताकि विवाह स्थिर रहे. तो रात को भी स्थिर लग्न आते हैं, दिन में भी स्थिर लग्न आते हैं. तो लग्न के अनुसार विवाह दिन या रात कभी भी किया जा सकता है. रात-दिन का कोई विचार नहीं है.
- चतुर्मास (भगवान विष्णु शयन काल)
तर्क:
इन समयों में धार्मिक और शुभ कार्य निषेध माने गए हैं। विशेष रूप से चतुर्मास में भगवान विष्णु शयन अवस्था में रहते हैं, जिससे कोई भी शुभ कार्य फलदायी नहीं होता।
विशेष समय:
देवउठनी एकादशी के बाद ही विवाह कार्य पुनः प्रारंभ करना शुभ माना जाता है।
निष्कर्ष
विवाह संस्कार एक पवित्र कार्य है और इसे शुभ मुहूर्त, नक्षत्र, और ज्योतिषीय नियमों के अनुसार करना चाहिए। इन निषेधों का पालन करने से वैवाहिक जीवन में समृद्धि और सुख की संभावना बढ़ती है। विवाह निश्चित करते समय जोड़ीदार का कुल (घराना), विद्या (बुद्धिमत्ता एवं शिक्षा), आयु, शील (प्रकृति एवं स्वभाव), धन (अर्थार्जन करने की क्षमता), रूप (शारीरिक स्थिति) एवं घर-द्वार का विचार किया जाता है.